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कविता

टेसू-वन खिले

राधेश्याम शुक्ल


फिर वही साए
अँधेरे के मिले।

दर्द का इतिहास पढ़ते
चुक गए दिन
पर गईं रातें
समय के हादसे गिन

भोर के कंधे
कुहासी सिलसिले।

किन हवाओं ने
दरख्तों को छुआ है
हर परिंदा
काँपता जंगल हुआ है

नींड़ उजड़े,
कर रहे शिकवे-गिले।

हो गई निर्बंध,
खुशबू की दिशाएँ
खो गई
ऋतुराज की संभावनाएँ

रंगतों के नाम
टेसू-वन खिले।


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